M. A. Gandhian Thaught Research By Aaradhya Singh


                  स्नातकोत्तर गाँधी विचार विभाग
      तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर 

                           एम. ए. गाँधी विचार 
                               2022-2024

विषय : - ग्रामीण क्षेत्र में बाल शिक्षा की स्तिथि का अध्यन। ( शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के विशेष सन्दर्भ में )

  शोध निदेशक                                       शोधर्थी 
 डॉ. गौतम कुमार                                आराध्या सिंह 
सहायक प्राध्यापक                         एम. ए. गाँधी विचार 

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प्रार्थना 
गाँधी जी की ताविज़
प्रस्तावना 
आभार 

                                  विषय सूची
क्रमांक                        विषय                             पृष्ठ 
अध्यय - 1. भूमिका ( शिक्षा का अर्थ एवं उद्देश्य )
अध्यय - 2. शिक्षा का इतिहास एवं वर्तमान स्थिति 
अध्यय - 3. बिहार में शिक्षा की स्थिति 
अध्यय - 4. शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के उद्देश्य,                     महत्व एवं प्रावधान 
अध्यय - 5. शोध प्राविधि व ग्रामीण क्षेत्र से प्राप्त 
                 आंकड़ों का विश्लेषण 
अध्यय - 6. सारांश, निष्कर्ष एवं महत्वपूर्ण सुझाव 

सन्दर्भ सूची 

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गाँधी जी की ताविज़

गाँधी जी ने अपने एक मित्र को, जो संदेहों से ग्रस्त था, एक पत्र लिखा। यह पत्र खो गया, लेकिन बाद में एक अवसर पर इसके शब्द याद आ गए और उन्हें लिपिबद्ध कर दिया गया। पत्र का मूल पाठ इस प्रकार है:

"मैं तुम्हें एक ताबीज दूंगा। जब भी तुम्हें संदेह हो, या जब अहंकार तुम्हारे लिए बहुत भारी हो जाए, तो निम्नलिखित उपाय आजमाओ:

"अपने जीवन में सबसे गरीब और असहाय व्यक्ति का चेहरा याद करें और अपने आप से पूछें कि आप जो कदम उठाने जा रहे हैं, क्या उससे उसे कोई लाभ होगा ? क्या इससे उसे कुछ लाभ होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और भाग्य पर नियंत्रण प्राप्त होगा? दूसरे शब्दों में, क्या इससे भूखे और आध्यात्मिक रूप से भूखे हमारे लाखों देशवासियों को स्वराज या स्वशासन प्राप्त होगा?

"तब आप पाएंगे कि आपके संदेह और आप स्वयं पिघल रहे हैं।

- एम.के. गांधी"

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प्रस्तावना 

स्नातकोत्तर गाँधी विचार विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय  भागलपुर  के  एम °ए °  चतुर्थ  सेमेस्टर में अनिवार्य विषयो के रूप में प्रत्येक वर्ष  अध्यनरत विद्यार्थीयो  दूारा  कुछ ना कुछ समसामयिक विषय पर शोध कार्य करवाया जाता है जिसके लिए शोध कार्य करने से सम्बंधित विभिन्न प्रकार की जानकारी विभाग में शोध निर्देशक  के माध्यम से विद्यार्थीयो को दी जाती है जिससे शोधकर्ता छात्र /छात्राओ  को सर्वेक्षण के दौरान परेशानियों का सामना कम से कम करना पड़े l

               इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए इस वर्ष बड़े ही सौभाग्य  से मुझे एक लघु शोध -प्रबंध पर कार्य करने का मौका विभाग द्वारा मिला जिसका विषय :-ग्रामीण क्षेत्र मे बाल शिक्षा की स्थिति  का अध्ययन (शिक्षा  के अधिकार अधिनियम 2009  के विशेष  संदर्भ में ). इस कार्य के लिए मुझे लगातार 3 दिनों तक sabour प्रखंड स्थिति  भिट्टी गाँव  में 100 परिवारों से  ऱ -ब -रू होकर उनकी बाल शिक्षा की स्थिति  के अधिकार  अधिनियम 2009  के विशेष संदर्भ मे जानने एवं समझने का मौका मिला l मैने अपने द्वारा पुनः किये गये इस लघु शोध -प्रबंध से शोध निर्देशिका द्वारा निर्देशित सभी नियमो का अक्षऱश :पालन किया है l जिसे आपके समक्ष अवलोकनाथ प्रस्तुत कर रही हूँ l

          छात्रा का नाम 
आराध्या सिंह 
स्नातकोत्तर गाँधी विचार विभाग 
तिलकामांझी विश्वविद्यालय भागलपुर 
क्रमांक -23010005
पंजीयन संख्या -TM1916278/2019
सत्र -2022-2024

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आभार 

प्रस्तुत लघु शोध प्रबंध (Short Research ) में "ग्रामीण क्षेत्र मे बाल शिक्षा की स्थिति  का अध्यन "( शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के विशेष सन्दर्भ में ) के परिपेक्ष मे सत्र 2022-2024, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यलय, सेमेस्टर 4, क्रमांक -23010005, पेपर - EC-ll पीजी की उपाधी के लिए मेरे द्वारा विस्तृत वर्णन किया जा रहा है l 

                              इसके लिए मैं सर्वप्रथम अपने लघु शोध -प्रबंध की नितिनिर्देस्क सह गाँधी विचार विभाग के प्राध्यायपाक महोदय डॉ गौतम कुमार  के प्रति अपना विशेष आभार प्रकट करती हूँ, जिन्होंने इस लघु शोध - प्रबंध कार्य को पूरा कराने में अपना बहुमूल्य समय दे कर हम छात्र/शोधर्थी का ज्ञानवर्धन करते हुए मार्गदर्शन कराया l

             मैं, गाँधी विचार विभाग के विभागअध्यक्ष  प्रो  डॉ  अमित रंजन सिंह के प्रति अपना आभार प्रकट करती  हूँ, जिन्होंने मेरे लघु शोध प्रबंध के  टॉपिक  "ग्रामीण क्षेत्र  में बाल शिक्षा की  स्थिति  का अध्यन" l (शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के विशेष सन्दर्भ में )
पर मुझे ज्ञान प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया l तत्पश्चात मैं अपने विभाग के सभी प्राध्यापक महोदय डॉ उमेश प्रसाद नीरज, डॉ सीमा कुमारी, डॉ मनोज कुमार, डॉ देशराज वर्मा, के प्रति अपना आभार प्रकट करती हूँ, जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन कर ज्ञान  प्राप्त करने  में सहयोग किया l

                        साथ ही सिवीर के सफल संचालन हेतु हम विद्यार्थी के मार्गदर्शन में अपना बहुमूल्य समय देकर अपनी महती भूमिका निभाने वाले एवं हमारे विभाग kae संस्थापक सदस्य प्रो डॉ  मनोज कुमार (पूर्व कुलपति, महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी  विश्वविद्यालय, वर्धा ) के प्रति भी अपना आभार प्रकट करते हुए विभागीय कार्य में सहयोग देने वाले विभाग के बड़ा बाबू श्री उमेश कुमार, आदेशपाल श्री रामचंद्र रविदास सहित अपने सभी सहपाठी सहित उन सभी लोगो के प्रति भी अपना आभार प्रकट करती हूँ, जिन्होंने प्रत्यक्ष और  अप्रत्यक्ष रूप से शोध कार्य को पूरा करने में मेरा सहयोग किया l
             अंत में, मैं अपने माता -पिता, अभिभावक, मित्रगण एवं भाई -बंधु के प्रति भी ह्दय से आभार प्रकट करती हूँ, जिन्होंने  मुझे इस लघु शोध -प्रबंध को  पूरा करने में अपना सहयोग प्रदान   किया l

         छात्रा का नाम 
आराध्या सिंह 
स्नातकोत्तर  गाँधी विचार विभाग,
तिलकामांझी विश्वविद्यालय,भागलपुर
क्रमांक -23010005
पंजीयन संख्या -TM1916278/2019
सत्र -2022-2024

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अध्यक्ष :- 1. भूमिका ( शिक्षा का अर्थ व परिभाषा)

परिचय :

शिक्षा का मतलब ज्ञान,सदाचार,उचित आचरण,तकनीकी शिक्षा तकनीकी दक्षता,विद्या आदि को प्राप्त करने की प्रक्रिया को कहते हैं। शिक्षा में ज्ञान, उचित आचरण और तकनीकी दक्षता, शिक्षण और विद्या प्राप्ति आदि समाविष्ट हैं। इस प्रकार यह कौशलों, व्यापारों या व्यवसायों एवं मानसिक, 
नैतिक और सौन्दर्यविषयक के उत्कर्ष पर केंद्रित है।
शिक्षा, समाज एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचली पीढ़ी को अपने ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास है। इस विचार से शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है। बच्चा शिक्षा द्वारा समाज के आधारभूत नियमों, व्यवस्थाओं, समाज के प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है। बच्चा समाज से तभी जुड़ पाता है जब वह उस समाज विशेष के इतिहास से अभिमुख होता है।
शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्त्व का विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यही प्रक्रिया उसे समाज में एक वयस्क की भूमिका निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा समाज के सदस्य एवं एक जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल उपलब्ध कराती है। शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की ‘शिक्ष्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बना है। ‘शिक्ष्’ का अर्थ है सीखना और सिखाना। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया।
जब हम शिक्षा शब्द के प्रयोग को देखते हैं तो मोटे तौर पर यह दो रूपों में प्रयोग में लाया जाता है, व्यापक रूप में तथा संकुचित रूप में। व्यापक अर्थ में शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि एवं व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है। मनुष्य क्षण-प्रतिक्षण नए-नए अनुभव प्राप्त करता है व करवाता है, जिससे उसका दिन-प्रतिदन का व्यवहार प्रभावित होता है। उसका यह सीखना-सिखाना विभिन्न समूहों, उत्सवों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन आदि से अनौपचारिक रूप से होता है। यही सीखना-सिखाना शिक्षा के व्यापक तथा विस्तृत रूप में आते हैं। संकुचित अर्थ में शिक्षा किसी समाज में एक निश्चित समय तथा निश्चित स्थानों (विद्यालय, महाविद्यालय) में सुनियोजित ढंग से चलने वाली एक सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा विद्यार्थी निश्चित पाठ्यक्रम को पढ़कर संबंधित परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना सीखता है।

शिक्षा पर विद्वानों के विचार:

समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों व नीतिकारों ने शिक्षा के सम्बन्ध में अपने विचार दिए हैं। शिक्षा के अर्थ को समझने में ये विचार भी हमारी सहायता करते हैं। कुछ शिक्षा सम्बन्धी मुख्य विचार यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैंः -
शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है। (महात्मा गांधी) मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। (स्वामी विवेकानंद) शिक्षा व्यक्ति की उन सभी भीतरी शक्तियों का विकास है जिससे वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रखकर अपने उत्तरदायित्त्वों का निर्वाह कर सके। (जॉन ड्यूवी) शिक्षा व्यक्ति के समन्वित विकास की प्रक्रिया है। (तथागत बुद्ध) शिक्षा का अर्थ अन्तःशक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है। (हरबर्ट स्पेंसर) शिक्षा मानव की सम्पूर्ण शक्तियों का प्राकृतिक, प्रगतिशील और सामंजस्यपूर्ण विकास है। (पेस्तालॉजी) शिक्षा राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक विकास का शक्तिशाली साधन है, शिक्षा राष्ट्रीय सम्पन्नता एवं राष्ट्र कल्याण की कुंजी है। (राष्ट्रीय शिक्षा आयोग, 1964-66)
शिक्षा बच्चे की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन है। ('सभी के लिए शिक्षा' पर विश्वव्यापी घोषणा, 1990)
प्राचीन भारत शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ‘मुक्ति’ की चाह रही है ( सा विद्या या विमुक्तये / विद्या उसे कहते हैं जो विमुक्त कर दे )। बाद में जरूरतों के बदलने और समाज विकास से आई जटिलताओं से शिक्षा के उद्देश्य भी बदलते गए।

शिक्षा के प्रकार:
व्यवस्था की दृष्टि से देखें तो शिक्षा के तीन रूप होते हैं -
(1) औपचारिक शिक्षा (2) निरौपचारिक शिक्षा (3) अनौपचारिक शिक्षा

औपचारिक शिक्षा-
वह शिक्षा जो विद्यालयों, महाद्यालयों और विश्वविद्यालयों में चलती हैं, औपचारिक शिक्षा कही जाती है। इस शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियाँ, सभी निश्चित होते हैं। यह योजनाबद्ध होती है और इसकी योजना बड़ी कठोर होती है। इसमें सीखने वालों को विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय की समय सारणी के अनुसार कार्य करना होता है। इसमें परीक्षा लेने और प्रमाण पत्र प्रदान करने की व्यवस्था होती है। इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यह व्यक्ति में ज्ञान और कौशल का विकास करती है और उसे किसी व्यवसाय अथवा उद्योग के लिए योग्य बनाती है। परन्तु यह शिक्षा बड़ी व्यय-साध्य होती है। इससे धन, समय व ऊर्जा सभी अधिक व्यय करने पड़ते हैं।

निरौपचारिक शिक्षा -
वह शिक्षा जो औपचारिक शिक्षा की भाँति विद्यालय, महाविद्यालय, और विश्वविद्यालयों की सीमा में नहीं बाँधी जाती है। परन्तु औपचारिक शिक्षा की तरह इसके उद्देश्य व पाठ्यचर्या निश्चित होती है, फर्क केवल उसकी योजना में होता है जो बहुत लचीली होती है। इसका मुख्य उद्देश्य सामान्य शिक्षा का प्रसार और शिक्षा की व्यवस्था करना होता है। इसकी पाठ्यचर्या सीखने वालों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित की गई है। शिक्षणविधियों व सीखने के स्थानों व समय आदि सीखने वालों की सुविधानानुसार निश्चित होता है। प्रौढ़ शिक्षा, सतत् शिक्षा, खुली शिक्षा और दूरस्थ शिक्षा, ये सब निरौपचारिक शिक्षा के ही विभिन्न रूप हैं।
इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके द्वारा उन बच्चों/व्यक्तियों को शिक्षित किया जाता है जो औपचारिक शिक्षा का लाभ नहीं उठा पाए जैसे -

वे लोग जो विद्यालयी शिक्षा नहीं पा सके (या पूरी नहीं कर पाए), प्रौढ़ व्यक्ति जो पढ़ना चाहते हैं, कामकाजी महिलाएँ,
जो लोग औपचारिक शिक्षा में ज्यादा व्यय (धन समय या ऊर्जा किसी स्तर पर खर्च) नहीं कर सकते।

इस शिक्षा द्वारा व्यक्ति की शिक्षा को निरन्तरता भी प्रदान की जाती है, उन्हें अपने-अपने क्षेत्र के नए-नए अविष्कारों से परिचित कराया जाता है और तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।

अनौपचारिक शिक्षा -
वह शिक्षा जिसकी कोई योजना नहीं बनाई जाती है; जिसके न उद्देश्य निश्चित होते हैं न पाठ्यचर्या और न शिक्षण विधियाँ और जो आकस्मिक रूप से सदैव चलती रहती है, उसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। यह शिक्षा मनुष्य के जीवन भर चलती है और इसका उस पर सबसे अधिक प्रभाव होता है। मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षण में इस शिक्षा को लेता रहता है, प्रत्येक क्षण वह अपने सम्पर्क में आए व्यक्तियों व वातावरण से सीखता रहता है। बच्चे की प्रथम शिक्षा अनौपचारिक वातावरण में घर में रहकर ही पूरी होती है। जब वह विद्यालय में औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने आता है तो एक व्यक्तित्त्व के साथ आता है जो कि उसकी अनौपचारिक शिक्षा का प्रतिफल है।

व्यक्ति की भाषा व आचरण को उचित दिशा देने, उसके अनुभवों को व्यवस्थित करने, उसे उसकी रुचि, रुझान और योग्यतानुसार किसी भी कार्य विशेष में प्रशिक्षित करने तथा जन शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के लिए हमें औपचारिक और निरौपचारिक शिक्षा का विधान करना आवश्यक होता है।

औपचारिक शिक्षा की प्रणालियाँ -
शिक्षा प्रणालियों शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए, अक्सर बच्चों और युवाओं के लिए स्थापित की जाती है एक पाठ्यक्रम छात्रों को क्या पता होना चाहिए, बोध और शिक्षा के परिणाम के रूप में करने के लायक समझ को परिभाषित करता है। अध्यापन का पेशा, सीख प्रदान करता है जो विद्या प्राप्ति और नीतियों की एक प्रणाली, नियमों, परीक्षाओं, संरचनाओं और वित्तपोषण को सक्षम बनाता है और वित्तपोषण शिक्षकों को अपनी प्रतिभा के उच्चतम् क्षमता से पढ़ाने में सहायता करता है। कभी कभी शिक्षा प्रणाली सिद्धांतों या आदर्शों एवं ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए प्रयोग की जाती है जिसे सामाजिक अभियंत्रिकी कहा जाता है विशेषतः अधिनायकवादी राज्यों और सरकार में यह व्यवस्था के राजनीतिक दुरुपयोग को बढ़ावा दे सकता है।
शिक्षा एक व्यापक माध्यम है, जो छात्रों में कुछ सीख सकने के सभी अनुभवों का विकास करता है।
अनुदेश शिक्षक अथवा अन्य रूपों द्वारा वितरित शिक्षण को कहते है जो अभिज्ञात लक्ष्य की विद्या प्राप्ति को जान बूझ कर सरल बनने को लिए हो।

शिक्षण एक असल उपदेशक की क्रियाओं को कहते है, जो शिक्षण को सुझाने के लिए आकल्पित की गयी हो।
प्रशिक्षण विशिष्ट ज्ञान, कौशल, या क्षमताओं की सीख के साथ शिक्षार्थियों को तैयार करने की दृष्टि से संदर्भित है, जो कि तुरंत पूरा करने पर लागू किया जा सकता है।

शिक्षण के स्तर -

शिक्षण को हम तीन स्तरों में बांट सकते हैं :- 
1. स्मृति स्तर
2. बोध स्तर
3. चिंतन स्तर

स्मृति स्तर -
प्रवर्तक हरबर्ट स्मृति स्तर में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जाती है, जिससे छात्र पढ़ाई की विषय वस्तु को आत्मसात कर सकें । इस स्तर पर प्रत्यास्मरण क्रिया पर जोर दिया जाता है । स्मृति शिक्षण में संकेत अधिगम , शृंखला अधिगम  पर महत्व दिया जाता है

बोध स्तर पर शिक्षण -
बोध स्तर के शिक्षण में शिक्षक छात्रों के समक्ष पाठ्यवस्तु को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि छात्रों को बोध के लिए अधिक से अधिक अवसर मिले और छात्रों में आवश्यक सूझबूझ उत्पन्न हो। इस प्रकार के शिक्षण में छात्रों की सहभागिता बनी रहती है । यह शिक्षण उद्देश्य केन्द्रीय तथा सूझबूझ से युक्त होता है।
बोध स्तर का शिक्षण विचारपूर्ण होता है।बोध स्तर के प्रतिमान के जन्मदाता हेनरी सी. मरिसन है।

चिन्तन स्तर पर शिक्षण -
चिंतन स्तर में शिक्षक अपने छात्रों में चिंतन तर्क तथा कल्पना शक्ति को बढ़ाता है ताकि छात्र दोनों के माध्यम से अपनी समस्याओं का समाधान कर सके । चिंतन स्तर पर शिक्षण समस्या केंद्रित होता है । इस स्तर में अध्यापक बच्चों के सामने समस्या उत्पन्न करता है और बच्चों को उस पर अपने स्वतंत्र चिंतन करने का समय देता है । इस स्तर में बच्चों में आलोचनात्मक तथा मौलिक चिंतन उत्पन्न होता है।

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अध्यय :- 2. शिक्षा का इतिहास एवं वर्त्तमान स्थिति 

शिक्षा का इतिहास

भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है। भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं। सूत्रकाल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं। बौद्धकाल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया। गुरु शिष्य प्रथा में कभी भेद नई हवा करते थे सभी जातियों को एक समान मान कर शिक्षा दी जाती थी,पर कई लोग कर्ण का उदाहरण दे कर उसे गलत बताते हैं किंतु ऐसा नहीं था, दरअसल पांडव और कौरवों के शिक्षा के लिए एक गुरु द्रोण को निर्धारित किया गया था और गुरु द्रोण भी अपने मित्र से बदला लेने के लिए सिर्फ निर्धारित सिस्यो को प्रशिक्षित कर रहे थे, इस लिए उन्होंने उसे और किसी और को भी शिक्षा नई दी। प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा का व्यवस्था ह्रास हुआ। विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया, जिस अनुपात में होना चाहिये था। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ व समस्याएँ हमारे सामने हैं जिनसे दो-दो हाथ करना है।

शिक्षा का केन्द्र : तक्षशिला का बौद्ध मठ

नालन्दा बिहार के अवशेष

१८५० तक भारत में गुरुकुल की प्रथा चलती आ रही थी परन्तु मैकाले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के संक्रमण के कारण भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का अन्त हुआ और भारत में कई गुरुकुल बंद हुए और उनके स्थान पर कान्वेंट और पब्लिक स्कूल खोले गए।

प्राचीन काल

भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी। शिक्षा, मुक्ति एवं आत्मबोध के साधन के रूप में थी। यह व्यक्ति के लिये नहीं बल्कि धर्म के लिये थी। भारत की शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परम्परा विश्व इतिहास में प्राचीनतम है। डॉ॰ अल्टेकर के अनुसार, "वैदिक युग से लेकर अब तक भारतवासियों के लिये शिक्षा का अभिप्राय यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का स्रोत है तथा जीवन के विभिन्न कार्यों में यह हमारा मार्ग आलोकित करती है।"

प्राचीन काल में शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया गया था। भारत 'विश्वगुरु' कहलाता था। विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा को प्रकाश स्रोत, अन्तर्दृष्टि, अन्तर्ज्योति, ज्ञानचक्षु और तीसरा नेत्र आदि उपमाओं से विभूषित किया है। उस युग की यह मान्यता थी कि जिस प्रकार अन्धकार को दूर करने का साधन प्रकाश है, उसी प्रकार व्यक्ति के समस्त संशयों और भ्रमों को दूर करने का साधन शिक्षा है। प्राचीन काल में इस बात पर बल दिया गया कि शिक्षा व्यक्ति को जीवन का यथार्थ दर्शन कराती है तथा इस योग्य बनाती है कि वह भवसागर की बाधाओं को पार करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर सके जो कि मानव जीवन का चरम लक्ष्य है।

प्राचीन भारत की शिक्षा का प्रारंभिक रूप हम ऋग्वेद में देखते हैं। ऋग्वेद युग की शिक्षा का उद्देश्य था तत्व साक्षात्कार। ब्रह्मचर्य, तप और योगाभ्यास से तत्व का साक्षात्कार करने वाले ऋषि, विप्र, वैघस, कवि, मुनि, मनीषी के नामों से प्रसिद्ध थे। साक्षात्कृत तत्वों का मंत्रों के आकार में संग्रह होता गया वैदिक संहिताओं में, जिनका स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन वैदिक शिक्षा रही।

विद्यालय 'गुरुकुल', 'आचार्यकुल', 'गुरु गृह' इत्यादि नामों से विदित थे। आचार्य के कुल में निवास करता हुआ, गुरु सेवा और ब्रह्मचर्य व्रतधारी विद्यार्थी षडंग वेद का अध्ययन करता था। शिक्षक को 'आचार्य' और 'गुरु' कहा जाता था और विद्यार्थी को ब्रह्मचारी, व्रतधारी, अंतेवासी, आचार्य कुलवासी। मंत्रों के द्रष्टा अर्थात्‌ साक्षात्कार करनेवाले ऋषि अपनी अनुभूति और उसकी व्याख्या और प्रयोग को ब्रह्मचारी, अंतेवासी को देते थे। गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करनेवाले व्रतचारी श्रुतर्षि होते थे। वेदमंत्र कंठस्थ किए जाते थे। आचार्य स्वर से मंत्रों का परायण करते और ब्रह्मचारी उनको उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे। इसके पश्चात्‌ अर्थबोध कराया जाता था। ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था। स्त्रियों के लिए भी यह आवश्यक समझा जाता था। आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले विद्यार्थी को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते थे। ऐसी विद्यार्थिनी ब्रह्मवादिनी कही जाती थी।

यज्ञों का अनुष्ठान विधि से हो, इसलिए होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा को आवश्यक शिक्षा दी जाती थी। वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष और निरुक्त उनके पाठ्य होते थे। पाँच वर्ष के बालक की प्राथमिक शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी। गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी। 8 वें वर्ष में ब्राह्मण बालक के, 11 वें वर्ष में क्षत्रिय के और 12 वें वर्ष में वैश्य के उपनयन की विधि थी। अधिक से अधिक यह 16, 22 और 24 वर्षों की अवस्था में होता था। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्थी गुरुगृह में 12 वर्ष वेदाध्ययन करते थे। तब वे स्नातक कहलाते थे। समावर्तन के अवसर पर गुरुदक्षिणा देन की प्रथा थी। समावर्तन के पश्चात्‌ भी स्नातक स्वाध्याय करते रहते थे। नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते थे। समावर्तन के सम ब्रह्मचारी दंड, कमंडलु, मेखला, आदि को त्याग देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत में जिन - जिन वस्तुओं का निषेध था अब से उनका उपयोग हो सकता था। प्राचीन भारत में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी और न कोई उपाधि ही दी जाती थी। नित्य पाठ पढ़ाने के पूर्व ब्रह्मचारी ने पढ़ाए हुए षष्ठ को समझा है और उसका अभ्यास नियम से किया है या नहीं, इसका पता आचार्य लगा लेते थे। ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे तथा बाद विवाद और शास्त्रार्थ में सम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।

भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव का था। उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था। आचार्य पारंगत विद्वान्‌, सदाचारी, क्रियावान्‌, नि:स्पृह, निरभिमान होते थे और विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते थे। अध्यापक, छात्रों का चरित्र निर्माण, उनके लिए भोजन वस्त्र का प्रबंध, रुग्ण छात्रों की चिकित्सा, शुश्रूषा करते थे। कुल में सम्मिलित ब्रह्मचारी मात्र को आचार्य अपने परिवार का अंग मानते थे और उनसे वैसा ही व्यवहार रखते थे। आचार्य धर्मबुद्धि से नि:शुल्क शिक्षा देते थे।

विद्यार्थी गुरु का सम्मान और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। आचार्य का चरणस्पर्श कर दिनचर्या के लिए प्रात:काल ही प्रस्तुत हो जाते थे। गुरु के आसन के नीचे आसन ग्रहण करना, सुसंयत वेश में रहना, गुरु के लिए दातौन इत्यादि की व्यवस्था करना, उनके आसन को उठाना और बिछाना, स्नान के लिए जल ला देना, समय पर वस्त्र और भोजन के पात्र को साफ करना, ईंधन संग्रह करना, पशुओं को चराना इत्यादि छात्रों के कर्तव्य माने जाते थे। विद्यार्थी ब्रह्ममुहूर्त में उठते थे और प्रात: काल कृत्यों से निवृत्त होकर, स्नान, संध्या, होम आदि कर लेते थे। फिर अध्ययन में लग जाते थे। इसके उपरांत भोजन करते थे और विश्राम के पश्चात्‌ आचार्य के पाठ ग्रहण करते थे। सांयकाल समिधा एकत्र कर ब्रह्मचारी संध्या ओर होम का अनुष्ठान करते थे। विद्यार्थी के लिए भिक्षाटन अनिवार्य कृत्य था। भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर विद्यार्थी मनन और निदिध्यासन में लग जाते थे।

वेदों का अध्ययन श्रावण पूर्णिमा को उपाकर्म से प्रारंभ होकर पौष पूर्णिमा को उपसर्जन से समाप्त होता था। शेष महीनों में अधीत पाठों की आवृत्ति, पुनरावृत्ति होती रहती थी। विद्यार्थी पृथक्‌ पृथक्‌ पाठ ग्रहण करते थे, एक साथ नहीं। प्रतिपदा और अष्टमी को अनध्याय होता था। गाँव, नगर अथवा पड़ोस में आकस्मिक विपत्ति से और शिष्टजनों के आगमन से विशेष अनध्याय होते थे। अनध्याय में अधीत वेदमंत्रों की पुनरावृत्ति और विषयांतर का अध्ययन निषिद्ध न थे। विनय के नियमों का उल्लंघन करनेवाले विद्यार्थी को दंड देने की परिपाटी थी। पाठ्यक्रम के विस्तार के साथ वेदों ओर वेदांगों के अतिरिक्त साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण और चिकित्साशास्त्र इत्यादि विषयों का अध्यापन होने लगा। टोल पाठशाला, मठ ओर विहारों में पढ़ाई होती थी।

काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वलभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे। दक्षिण भारत के एन्नारियम, सलौत्गि, तिरुमुक्कुदल, मलकपुरम्‌ तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे। अग्रहारों के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार शताब्दियों होता रहा। कादिपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे। प्राचीन शिक्षा प्राय: वैयक्तिक ही थी। कथा, अभिनय इत्यादि शिक्षा के साधन थे। अध्यापन विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था अर्थात्‌ विषयों को स्मरण रखने के लिए सूत्र, कारिका और सारनों से काम लिया जाता था। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष पद्धति किसी भी विषय की गहराई तक पहुँचने के लिए बड़ी उपयोगी थी। भिन्न भिन्न अवस्था के छात्रों को कोई एक विषय पढ़ाने के लिए समकेंद्रिय विधि का विशेष रूप से उपयोग होता था सूत्र, वृत्ति, भाष्य, वार्तिक इस विधि के अनुकूल थे। कोई एक ग्रंथ के बृहत्‌ और लघु संस्करण इस परिपाटी के लिए उपयोगी समझे जाते थे।

बौद्धों और जैनों की शिक्षापद्धति भी इसी प्रकार की थी।

मध्यकाल

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जानने वाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। हिंदू अरबी और फारसी पढ़ने लगे। बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार इस्लामी आधार पर शिक्षा दी जाने लगी। इस्लाम के संरक्षण और प्रचार के लिए मस्जिदें बनती गई, साथ ही मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना होने लगी। मकतब प्रारंभिक शिक्षा के केंद्र होते थे और मदरसे उच्च शिक्षा के। मकतबों की शिक्षा धार्मिक होती थी। विद्यार्थी कुरान के कुछ अंशों का कंठस्थ करते थे। वे पढ़ना, लिखना, गणित, अर्जीनवीसी और चिट्ठीपत्री भी सीखते थे। इनमें हिंदू बालक भी पढ़ते थे।

मकतबों में शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थी मदरसों में प्रविष्ट होते थे। यहाँ प्रधानता धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। साथ साथ इतिहास, साहित्य, व्याकरण, तर्कशास्त्र, गणित, कानून इत्यादि की पढ़ाई होती थी। सरकार शिक्षकों को नियुक्त करती थी। कहीं कहीं प्रभावशाली व्यक्तियों के द्वारा भी उनकी नियुक्ति होती थी। अध्यापन फारसी के माध्यम से होता था। अरबी मुसलमानों के लिए अनिवार्य पाठ्य विषय था। छात्रावास का प्रबंध किसी किसी मदरसे में होता था। दरिद्र विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति मिलती थी। अनाथालयों का संचालन होता था। शिक्षा नि:शुल्क थी। हस्तलिखित पुस्तकें पढ़ी और पढ़ाई जाती थीं।

राजकुमारों के लिए महलों के भीतर शिक्षा का प्रबंध था। राज्यव्यवस्था, सैनिक संगठन, युद्धसंचालन, साहित्य, इतिहास, व्याकरण, कानून आदि का ज्ञान गृहशिक्षक से प्राप्त होता था। राजकुमारियाँ भी शिक्षा पाती थीं। शिक्षकों का बड़ा सम्मान था। वे विद्वान्‌ और सच्चरित्र होते थे। छात्र और शिक्षकों को आपसी संबंध प्रेम और सम्मान का था। सादगी, सदाचार, विद्याप्रेम और धर्माचरण पर जोर दिया जाता था। कंठस्थ करने की परंपरा थी। प्रश्नोत्तर, व्याख्या और उदाहरणों द्वारा पाठ पढ़ाए जाते थे। कोई परीक्षा नहीं थी। अध्ययन अध्यापन में प्राप्त अवसरों में शिक्षक छात्रों की योग्यता और विद्वत्ता के विषय में तथ्य प्राप्त करते थे। दंड प्रयोग किया जाता था। जीविका उपार्जन के लिए भी शिक्षा दी जाती थी। दिल्ली, आगरा, बीदर, जौनपुर, मालवा मुस्लिम शिक्षा के केंद्र थे। मुसलमान शासकों के संरक्षण के अभाव में भी संस्कृत काव्य, नाटक, व्याकरण, दर्शन ग्रंथों की रचना और उनका पठन पाठन बराबर होता रहा।

आधुनिक काल

भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से डाली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा। धीरे धीरे कार्यक्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे। रविवार को विद्यालय बंद रहता था। अनेक शिक्षक छात्रों की पढ़ाई अनेक श्रेणियों में कराते थे। अध्यापन का समय नियत था। साल भर में छोटी बड़ी अनेक छुट्टियाँ हुआ करती थीं।

प्राय: 150 वर्षों के बीतते बीतते व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी राज्य करने लगी। विस्तार में बाधा पड़ने के डर से कंपनी शिक्षा के विषय में उदासीन रही। फिर भी विशेष कारण और उद्देश्य से 1781 में कलकत्ते में 'कलकत्ता मदरसा' कंपनी द्वारा और 1792 में बनारस में 'संस्कृत कालेज' जोनाथन डंकन द्वारा स्थापित किए गए। धर्मप्रचार के विषय में भी कंपनी की पूर्वनीति बदलने लगी। कंपनी अब अपने राज्य के भारतीयों को शिक्षा देने की आवश्यकता को समझने लगी। 1813 के आज्ञापत्र के अनुसार शिक्षा में धन व्यय करने का निश्चय किया गया। किस प्रकार की शिक्षा दी जाए, इसपर प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में मतभेद रहा। वाद विवाद चलता चला। अंत में लार्ड मेकाले के तर्क वितर्क और राजा राममोहन राय के समर्थन से प्रभावित हो 1835 ई. में लार्ड बेंटिक ने निश्चय किया कि अंग्रेजी भाषा और साहित्य और यूरोपीय इतिहास, विज्ञान, इत्यादि की पढ़ाई हो और इसी में 1813 के आज्ञापत्र में अनुमोदित धन का व्यय हो। प्राच्य शिक्षा चलती चले, परंतु अंग्रेजी और पश्चिमी विषयों के अध्ययन और अध्यापन पर जोर दिया जाए।

पाश्चात्य रीति से शिक्षित भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरते देख जनता इधर झुकने लगी। अंग्रेजी विद्यालयों में अधिक संख्या में विद्यार्थी प्रविष्ट होने लगे क्योंकि अंग्रेजी पढ़े भारतीयों को सरकारी पदों पर नियुक्त करने की नीति की सरकारी घोषणा हो गई थी। सरकारी प्रोत्साहन के साथ साथ अंग्रेजी शिक्षा को पर्याप्त मात्रा में व्यक्तिगत सहयोग भी मिलता गया। अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ साथ अधिक कर्मचारियों की और चिकित्सकों, इंजिनियरों और कानून जाननेवालों की आवश्यकता पड़ने लगी। उपयोगी शिक्षा की ओर सरकार की दृष्टि गई। मेडिकल, इजिनियरिंग और लॉ कालेजों की स्थापना होने लगी। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा फुले ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए। स्त्री शिक्षा पर ध्यान दिया जाने लगा।

1853 में शिक्षा की प्रगति की जाँच के लिए एक समिति बनी। 1854 में बुड के शिक्षासंदेश पत्र में समिति के निर्णय कंपनी के पास भेज दिए गए। संस्कृत, अरबी और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। औद्योगिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। प्रातों में शिक्षा विभाग अध्यापक प्रशिक्षण नारीशिक्षा इत्यादि की सिफारिश की गई। 1857 में स्वतंत्रता युद्ध छिड़ गया जिससे शिक्षा की प्रगति में बाधा पड़ी। प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित ही रही। उच्च शिक्षा की उन्नति होती गई। 1857 में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए।

मुख्यतः प्राथमिक शिक्षा की दशा की जाँच करते हुए शिक्षा के प्रश्नों पर विचार करने के लिए 1882 में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग ने प्राथमिक शिक्षा के लिए उचित सुझाव दिए। सरकारी प्रयत्न को माध्यमिक शिक्षा से हटाकर प्राथमिक शिक्षा के संगठन में लगाने की सिफारिश की। सरकारी माध्यमिक स्कूल प्रत्येक जिले में एक से अधिक न हो; शिक्षा का माध्यम माध्यमिक स्तर में अंग्रेजी रहे। माध्यमिक स्कूलों के सुधार और व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार के लिए आयोग ने सिफारिशें कीं। सहायता अनुदान प्रथा और सरकारी शिक्षाविभागों का सुधार, धार्मिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा इत्यादि पर भी आयोग ने प्रकाश डाला।

शिक्षा की वर्त्तमान स्थिति 

ब्रिटिश काल में शिक्षा में मिशनरियों का प्रवेश हुआ, इस काल में महत्वपूर्ण शिक्षा दस्तावेज में मैकाले का घोषणा पत्र 1835, वुड का घोषणा पत्र 1854, हण्टर आयोग 1882 सम्मिलित हैं। इस काल में शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजों के राज्य के शासन सम्बन्धी हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया था।

प्राय: लोग इसे मैकाले की शिक्षा प्रणाली के नाम से पुकारते हैं। लार्ड मैकाले ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के ऊपरी सदन (हाउस ऑफ लार्ड्स) का सदस्य था। 1857 की क्रान्ति के बाद जब 1860 में भारत के शासन को ईस्ट इण्डिया कम्पनी से छीनकर रानी विक्टोरिया के अधीन किया गया तब मैकाले को भारत में अंग्रेजों के शासन को मजबूत बनाने के लिये आवश्यक नीतियां सुझाने का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया था। उसने सारे देश का भ्रमण किया। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यहां झाडू देने वाला, चमड़ा उतारने वाला, करघा चलाने वाला, कृषक, व्यापारी (वैश्य), मंत्र पढ़ने वाला आदि सभी वर्ण के लोग अपने-अपने कर्म को बड़ी श्रद्धा से हंसते-गाते कर रहे थे। सारा समाज संबंधों की डोर से बंधा हुआ था। शूद्र भी समाज में किसी का भाई, चाचा या दादा था तथा ब्राहमण भी ऐसे ही रिश्तों से बंधा था। बेटी गांव की हुआ करती थी तथा दामाद, मामा आदि रिश्ते गांव के हुआ करते थे। इस प्रकार भारतीय समाज भिन्नता के बीच भी एकता के सूत्र में बंधा हुआ था। इस समय धार्मिक सम्प्रदायों के बीच भी सौहार्दपूर्ण संबंध था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1857 की क्रान्ति में हिन्दू-मुसलमान दोनों ने मिलकर अंग्रेजों का विरोध किया था। मैकाले को लगा कि जब तक हिन्दू-मुसलमानों के बीच वैमनस्यता नहीं होगी तथा वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत संचालित समाज की एकता नहीं टूटेगी तब तक भारत पर अंग्रेजों का शासन मजबूत नहीं होगा।

भारतीय समाज की एकता को नष्ट करने तथा वर्णाश्रित कर्म के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए मैकाले ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बनाया। अंग्रेजों की इस शिक्षा नीति का लक्ष्य था - संस्कृत, फारसी तथा लोक भाषाओं के वर्चस्व को तोड़कर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम करना। साथ ही सरकार चलाने के लिए देशी अंग्रेजों को तैयार करना। इस प्रणाली के जरिए वंशानुगत कर्म के प्रति घृणा पैदा करने और परस्पर विद्वेष फैलाने की भी कोशिश की गई थी। इसके अलावा पश्चिमी सभ्यता एवं जीवन पद्धति के प्रति आकर्षण पैदा करना भी मैकाले का लक्ष्य था। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ईसाई मिशनरियों ने भी महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। ईसाई मिशनरियों ने ही सर्वप्रथम मैकाले की शिक्षा-नीति को लागू किया।

मार्च १८९० में गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा पहली बार अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी प्रस्ताव किया गया था। हर्टांग समिति 1929 ने प्राथमिक विद्यालयों की संख्यात्मक वृद्धि पर बल न देकर गुणात्मक उन्नति पर जोर दिया था। गाँधी जी द्वारा प्रतिपादित बुनियादी शिक्षा का महत्वपूर्ण लक्ष्य, शिल्प आधारित शिक्षा द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास कर उसे आत्मनिर्भर आदर्श नागरिक बनाना था। मैकाले ने सुझाव दिया कि अंग्रेजी सीखने से ही विकाैस संभव है।

आजादी के बाद राधाकृष्ण आयोग (1948-49), माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग) 1953, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (1953), कोठारी शिक्षा आयोग (1964), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) एवं नवीन शिक्षा नीति (1986) आदि के द्वारा भारतीय शिक्षा व्यवस्था को समय-समय पर सही दिशा देनें की गंभीर कोशिश की गयी।
1948-49 में विश्वविद्यालयों के सुधार के लिए भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग की सिफारिशों को बड़ी तत्परता के साथ कार्यान्वित किया गया। उच्च शिक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। पंजाब, गौहाटी, पूना, रुड़की, कश्मीर, बड़ौदा, कर्णाटक, गुजरात, महिला विश्वविद्यालय, विश्वभारती, बिहार, श्रीवेकंटेश्वर, यादवपुर, वल्लभभाई, कुरुक्षेत्र, गोरखपुर, विक्रम, संस्कृत वि.वि. आदि अनेक नए विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात्‌ शिक्षा में प्रगति होने लगी। विश्वभारती, गुरुकुल, अरविंद आश्रम, जामिया मिल्लिया इसलामिया, विद्याभवन, महिला विश्वक्षेत्र में प्रशंसनीय वनस्थली विद्यापीठ आधुनिक भारतीय शिक्षा के विद्यालय और प्रयोग हैं।
1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की उन्नति के लिए अनेक सुझाव दिए। माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन से शिक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई।

भारतीय शिक्षा के आधुनिक इतिहास की प्रमुख घटनाएँ

१७८० : ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा 'कोलकाता मदरसा' स्थापित

१७९१ : ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा बनारस में 'संस्कृत कालेज' की स्थापना

१० जुलाई सन् १८०० : कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने की।

१८१३ : एक आज्ञापत्र के द्वारा शिक्षा में धन व्यय करने का निश्चय किया गया।

१८३५ : मैकाले का घोषणापत्र

१८४८ : महात्मा जोतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ाने के बाद १८४८ में पुणे में लड़कियों के लिए भारत का पहला प्राथमिक विद्यालय खोला।[2]

१८५४ : वुड का घोषणापत्र

१८५७ : कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए।

१८७० : बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों द्वारा पूना में फर्ग्यूसन कालेज की स्थापना।

१८८२ : हण्टर आयोग

१८८६ : आर्यसमाज द्वारा लाहौर में दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कालेज की स्थापना।

१८९३ : काशी नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना।

१८९३ : बड़ोदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने पहली बार राज्य को अनिवार्य शिक्षा से परिचित कराया।

१८९४-१९२२ : छत्रपति साहू जी महाराज द्वारा वंचितों और गरीब बच्चों के लिए स्कूलों व छात्रावासों की स्थापना की तथा उच्च शिक्षा के लिए उन्हें आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई।

१८९८ : काशी में श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा 'सेंट्रल हिंदू कालेज' स्थापित।

१९०१ : लार्ड कर्ज़न ने शिमला में एक गुप्त शिक्षा सम्मेलन किया जिसमें 152 प्रस्ताव स्वीकृत हुए थे।

१९०२ : भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति (लॉर्ड कर्जन द्वारा)

१९०४ : भारतीय विश्वविद्यालय कानून बना।

१९०५ : स्वदेशी आंदोलन के समय कलकत्ते में जातीय शिक्षा परिषद की स्थापना हुई और नैशनल कालेज स्थापित हुआ जिसके प्रथम प्राचार्य अरविंद घोष थे। बंगाल टेकनिकल इन्स्टिट्यूट की स्थापना भी हुई।
१९०६ : बड़ोदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ भारत के प्रथम शासक थे जिन्होने १९०६ में अपने राज्य में निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा आरम्भ की।[3]
१९११ : गोपाल कृष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क और अनिवार्य करने का प्रयास किया।
१९१६ : मदन मोहन मालवीय द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना
१९१९ - १९२० : महर्षि अरविन्द ने 'अ सिस्टम ओफ़ नेशनल एजुकेशन' नाम से अनेक लेख प्रकाशित किये।
१९३७-३८ : गांधीवादी विचारों पर आधारित बुनियादी शिक्षा योजना लागू।
१९४५ : सार्जेण्ट योजना लागू।
१९४८-४९ : विश्‍वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन
१९५१ : खड़गपुर में प्रथम आईआईटी की स्थापना
१९५२-५३ : माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन
१९५६ : विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग की स्‍थापना
१९५८ : दूसरा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुम्बई में स्थापित
१९५९ : कानपुर एवं चेन्नई में क्रमशः तीसरा एवं चौथा आईआईटी स्थापित।
१९६१ : एनसीईआरटी की स्‍थापना
प्रथम दो भारतीय प्रबन्धन संस्थान अहमदाबाद एवं कोलकाता में स्थापित किए गए।
१९६३ : पाँचवां आईआईटी दिल्ली में स्थापित किया गया।
तीसरा I.I.M. बंगलौर में स्थापित।
१९६४-६६ : कोठारी शिक्षा आयोग की स्‍थापना, रिपोर्ट प्रस्‍तुत की।
१९६८ : कोठारी शिक्षा आयोग की सिफारिशों के अनुसरण में प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति अपनाई गई।
१९७५ : छह वर्ष तक के बच्चों के उचित विकास के लिए समेकित बाल विकास सेवा योजना प्रारम्भ।

१९०४ : भारतीय विश्वविद्यालय कानून बना।
१९०५ : स्वदेशी आंदोलन के समय कलकत्ते में जातीय शिक्षा परिषद की स्थापना हुई और नैशनल कालेज स्थापित हुआ जिसके प्रथम प्राचार्य अरविंद घोष थे। बंगाल टेकनिकल इन्स्टिट्यूट की स्थापना भी हुई।
१९०६ : बड़ोदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ भारत के प्रथम शासक थे जिन्होने १९०६ में अपने राज्य में निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा आरम्भ की।[3]
१९११ : गोपाल कृष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क और अनिवार्य करने का प्रयास किया।
१९१६ : मदन मोहन मालवीय द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना
१९१९ - १९२० : महर्षि अरविन्द ने 'अ सिस्टम ओफ़ नेशनल एजुकेशन' नाम से अनेक लेख प्रकाशित किये।
१९३७-३८ : गांधीवादी विचारों पर आधारित बुनियादी शिक्षा योजना लागू।
१९४५ : सार्जेण्ट योजना लागू।
१९४८-४९ : विश्‍वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन
१९५१ : खड़गपुर में प्रथम आईआईटी की स्थापना
१९५२-५३ : माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन
१९५६ : विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग की स्‍थापना
१९५८ : दूसरा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुम्बई में स्थापित
१९५९ : कानपुर एवं चेन्नई में क्रमशः तीसरा एवं चौथा आईआईटी स्थापित।
१९६१ : एनसीईआरटी की स्‍थापना
प्रथम दो भारतीय प्रबन्धन संस्थान अहमदाबाद एवं कोलकाता में स्थापित किए गए।
१९६३ : पाँचवां आईआईटी दिल्ली में स्थापित किया गया।
तीसरा I.I.M. बंगलौर में स्थापित।
१९६४-६६ : कोठारी शिक्षा आयोग की स्‍थापना, रिपोर्ट प्रस्‍तुत की।
१९६८ : कोठारी शिक्षा आयोग की सिफारिशों के अनुसरण में प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति अपनाई गई।
१९७५ : छह वर्ष तक के बच्चों के उचित विकास के लिए समेकित बाल विकास सेवा योजना प्रारम्भ।

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अध्यय :- 3. बिहार में शिक्षा की स्थिति 

बिहार में शिक्षा

बिहार शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र रहा है तथा यहां पांचवीं शताब्दी में निर्मित भारत के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। प्राचीन काल से चली आ रही शिक्षा की परंपरा मध्यकाल में लुप्त हो गई, जब ऐसा माना जाता है कि आक्रमणकारियों की लूटपाट करने वाली सेनाओं ने इन शिक्षा केंद्रों को नष्ट कर दिया।

बिहार ने ब्रिटिश शासन के बाद के भाग के दौरान एक पुनरुद्धार देखा जब उन्होंने पटना में उच्च शिक्षा के अन्य केंद्रों के साथ एक विश्वविद्यालय की स्थापना की, अर्थात साइंस कॉलेज, पटना , प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज (अब पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल ), और बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज (अब राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना )। यह शुरुआती बढ़त स्वतंत्रता के बाद की अवधि में खो गई जब बिहार के राजनेता बिहार में शिक्षा के केंद्र स्थापित करने की दौड़ में हार गए। आईआईटी , आईआईएम और एम्स , आईआईएसईआर , एनआईएसईआर जैसे राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों में बिहार का अच्छा प्रतिनिधित्व था। प्रथम  के एक सर्वेक्षण में बिहार के बच्चों द्वारा उनकी पढ़ाई को अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर बताया गया। सरकार के अनुसार, 6-14 आयु वर्ग में स्कूल से बाहर रहने की दर 2007 में 6.3% थी, जो 2006 में 12.8 प्रतिशत से बड़ी गिरावट थी। 

बीएसईबी द्वारा कई सुधार और कदम उठाए जाने के बाद, जैसे कि परिणाम जारी करने से पहले टॉपर्स का साक्षात्कार लेना, पास प्रतिशत में काफी वृद्धि हुई है। 2020 में, कक्षा 12 बीएसईबी परीक्षा में बैठने वाले 80.44% छात्र उत्तीर्ण घोषित किए गए। इसी तरह, कक्षा 10 के लिए, 2020 की परीक्षा के लिए पास प्रतिशत में सुधार हुआ और यह 80.59% हो गया। पास प्रतिशत बढ़ाने के लिए, परीक्षा के पैटर्न में भी बदलाव किया गया, जिसमें MCQ ने इस सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

बिहार शिक्षा का इतिहास

ऐतिहासिक रूप से, बिहार शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र रहा है, जहां नालंदा ( अनुमानतः 450 ई.पू.), ओदंतपुरा (अनुमानतः 550 ई.पू.) और विक्रमशिला (अनुमानतः 783 ई.पू.) के प्राचीन विश्वविद्यालय हैं। 1200 ई. में इस्लामिक आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया था।

बिहार ने ब्रिटिश शासन के बाद के भाग के दौरान अपनी शिक्षा प्रणाली का पुनरुद्धार देखा , जब भारतीय उपमहाद्वीप का सातवां सबसे पुराना विश्वविद्यालय पटना विश्वविद्यालय 1917 में स्थापित किया गया था। ब्रिटिश शासन के तहत स्थापित उच्च शिक्षा के कुछ अन्य केंद्र पटना कॉलेज (स्था. 1839), बिहार स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग (स्था. 1900; अब राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना के रूप में जाना जाता है ), प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज (स्था. 1925; अब पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल ), साइंस कॉलेज, पटना (स्था. 1928), पटना महिला कॉलेज , बिहार पशु चिकित्सा कॉलेज (स्था. 1927), और इंपीरियल एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट (स्था. 1905; अब डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा )। बिहार के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक पटना विश्वविद्यालय 1917 में स्थापित भारत का दूसरा सबसे पुराना इंजीनियरिंग कॉलेज एनआईटी पटना के रूप में जाना जाता है जिसे 1886 में सर्वेक्षण प्रशिक्षण स्कूल के रूप में स्थापित किया गया था और बाद में 1932 में इसका नाम बदलकर बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग कर दिया गया। इसके बाद, भारत सरकार ने 2004 में बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) का दर्जा दिया और राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान अधिनियम, 2007 के अनुसार 2007 में राष्ट्रीय महत्व के संस्थान का दर्जा दिया ।

आजादी से पहले बिहार पूर्वी भारत का एक प्रमुख शैक्षिक केंद्र था । 1960 के दशक में तत्कालीन शिक्षा मंत्री और शिक्षाविद् स्वर्गीय सतेंद्र नारायण सिन्हा द्वारा राज्य की शिक्षा संरचना को सुव्यवस्थित करने के लिए प्रमुख शैक्षिक सुधार लागू किए गए थे ; हालाँकि अभूतपूर्व परिवर्तन अल्पकालिक थे क्योंकि क्रमिक सरकारें इसे लागू करने में विफल रहीं।  1964 में मुंगेर में बिहार स्कूल ऑफ योगा की स्थापना की गई थी । बिहार में अपर्याप्त शैक्षिक बुनियादी ढांचा है जो मांग और आपूर्ति के बीच एक बड़ा बेमेल पैदा करता है। यह समस्या जनसंख्या में वृद्धि और विशेष रूप से लालू - राबड़ी युग के दौरान शासन के मुद्दे से और बढ़ गई थी , लेकिन नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद पुनर्जीवित हो गई । बेहतर शासन ने बुनियादी ढांचे में निवेश में वृद्धि,  बेहतर स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं, शिक्षा पर अधिक जोर और अपराध और भ्रष्टाचार में कमी के माध्यम से राज्य में आर्थिक पुनरुद्धार किया है। इससे स्नातक स्तर की कॉलेज शिक्षा के लिए भी नई दिल्ली और कर्नाटक जैसे अन्य राज्यों में शैक्षिक अवसरों की तलाश करने के लिए छात्रों की "बाढ़" आ गई है । शोधकर्ताओं ने पाया कि बिहार के 37.8% शिक्षक स्कूलों में अघोषित दौरे के दौरान नहीं मिल पाए, जो भारत में सबसे खराब शिक्षक अनुपस्थिति दर और दुनिया में सबसे खराब में से एक है। अन्य गरीब भारतीय राज्यों की तुलना में बिहार में शिक्षा पर अपर्याप्त निवेश के बावजूद, छात्रों ने अच्छा प्रदर्शन किया है।

साक्षरता

1951 से 2011 तक साक्षरता दर

वर्ष कुल पुरुषों महिलाओं

1961 21.95 35.85 8.11

1971 23.17 35.86 9.86

1981 32.32 47.11 16.61

1991 37.49 51.37 21.99

2001 47.53 60.32 33.57

2011 63.82 73.39 53.33

 

बिहार में साक्षरता

बिहार की कुल साक्षरता दर 69.83% है। कुल पुरुष और महिला साक्षरता दर क्रमशः 70.32% और 53.57% है। कुल ग्रामीण साक्षरता दर 43.9% है। बिहार के ग्रामीण इलाकों में पुरुष और महिला साक्षरता दर क्रमशः 57.1 और 29.6 है। कुल शहरी साक्षरता दर 71.9 है। बिहार के शहरी इलाकों में पुरुष और महिला साक्षरता दर क्रमशः 79.9 और 62.6 है। बिहार में कुल साक्षरों की संख्या 3,16,75,607 है, जिसमें 2,09,78,955 पुरुष और 1,06,96,652 महिलाएं हैं। पटना में सबसे अधिक साक्षरता दर 63.82% है, उसके बाद रोहतास (62.36%) और मुंगेर (60.11%) का स्थान है। किशनगंज में सबसे कम साक्षरता दर 31.02% है, उसके बाद अररिया (34.94%) और कटिहार (35.29%) का स्थान है। प्रथम द्वारा हाल ही में किए गए सर्वेक्षण में बिहारी बच्चों की शिक्षा के प्रति ग्रहणशीलता को अन्य राज्यों के बच्चों से बेहतर बताया गया है। बिहार महिला साक्षरता को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है, जो अब 53.3% है। स्वतंत्रता के समय बिहार में महिला साक्षरता 4.22% थी।

प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा


ब्रिटिश काल से ही बिहार में जिला विद्यालयों (जिन्हें जिला विद्यालय कहा जाता है) की व्यवस्था रही है, जो बिहार के पुराने जिलों में स्थित हैं। इसके अलावा, निजी और अर्ध-सहायता प्राप्त विद्यालय भी थे, जिन्हें स्थानीय ग्राम समुदायों द्वारा चलाया और प्रशासित किया जाता था। उनमें से कई अपनी उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा के लिए जाने जाते थे।

1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक की शुरुआत में, राज्य सरकार ने ज़्यादातर निजी स्कूलों का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। इससे राज्य में स्कूली शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा क्योंकि राज्य सरकार अपने नौकरशाहों के ज़रिए स्कूलों का प्रबंधन करने में अक्षम थी , जिन्हें कानून और व्यवस्था के कर्तव्यों के लिए प्रशिक्षित किया गया था। हालाँकि राज्य ने उन्हें सरकारी मान्यता दे दी, लेकिन उनका स्तर गिरना शुरू हो गया। राज्य ने ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को अपने हाथ में नहीं लिया और इन स्कूलों ने बिहार में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बढ़ावा दिया।

अन्य राज्यों की तरह, केंद्र सरकार ग्रामीण छात्रों के लिए कई केंद्रीय विद्यालय (केंद्रीय विद्यालय) और जवाहर नवोदय विद्यालय चलाती है। दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा शुरू किए गए जवाहर नवोदय विद्यालय समाज के कमजोर वर्गों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में सफल रहे हैं।

राजनीतिज्ञ नीतीश कुमार के प्रयासों से 2010 में सिमुलतला आवासीय विद्यालय की स्थापना की गई थी। इस विद्यालय को बिहार विद्यालय परीक्षा समिति में टॉपर देने का गौरव प्राप्त है।

उदारीकरण के बाद के युग में ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूल-श्रृंखलाओं और मिशनरी स्कूलों के साथ-साथ मदरसों या मुस्लिम मौलवियों द्वारा संचालित स्कूलों सहित निजी स्कूलों की संख्या में वृद्धि हुई है।

बिहार के अधिकांश स्कूल बिहार विद्यालय परीक्षा बोर्ड से संबद्ध हैं , जबकि केन्द्रीय विद्यालय और ईसाई मिशनरी स्कूलों सहित कुछ अन्य कुलीन स्कूल सीबीएसई बोर्ड से संबद्ध हैं। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (एनयूईपीए) के एक हालिया सर्वेक्षण ने निर्धारित किया है कि बिहार के सभी प्राथमिक विद्यालय के केवल 21% शिक्षकों ने मैट्रिकुलेशन या 10वीं कक्षा पूरी की है।  हालाँकि, बिहार सरकार ने हाल ही में अपने प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र में सुधारों की एक श्रृंखला को लागू किया है जिसमें सभी राज्य संचालित स्कूलों का अनिवार्य डिजिटलीकरण शामिल है। 

उच्च शिक्षा

बिहार में उच्च शिक्षा संस्थानों की सूची

बिहार राष्ट्रीय महत्व के 8 संस्थानों का घर है जिसमें आईआईटी पटना , आईआईएम बोधगया , एम्स, पटना , एनआईटी पटना , आईआईआईटी भागलपुर , एनआईपीईआर हाजीपुर , डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय और नालंदा विश्वविद्यालय शामिल हैं । 2008 में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान पटना का उद्घाटन पूरे भारत के छात्रों के साथ किया गया था और उसी वर्ष राष्ट्रीय फैशन प्रौद्योगिकी संस्थान पटना को भारत में नौवें ऐसे संस्थान के रूप में स्थापित किया गया था। भारतीय प्रबंधन संस्थान बोधगया की स्थापना 2015 में हुई थी। मार्च 2019 में, बिहार सरकार ने दरभंगा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल को एम्स जैसे संस्थान में अपग्रेड करने के लिए केंद्र सरकार को एक प्रस्ताव भेजा है।

बिहार चार केंद्रीय विश्वविद्यालयों का घर है जिसमें दक्षिण बिहार का केंद्रीय विश्वविद्यालय , महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय , डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय और नालंदा विश्वविद्यालय शामिल हैं। 2015 में, केंद्र सरकार ने भागलपुर में विक्रमशिला की पुनर्स्थापना का प्रस्ताव दिया था और इसके लिए ₹ 500 करोड़ ( ₹ 5 बिलियन) निर्धारित किए थे ।  बिहार में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी पटना , नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, पटना इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट (IHM), फुटवियर डिजाइन एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट, बिहटा और सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ प्लास्टिक इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (CIPET) सेंटर जैसे संस्थान भी हैं। CIPET (और IHM की स्थापना क्रमशः 1994 और 1998 में हाजीपुर में की गई थी । 2021 में बिहार सरकार के अधिनियम 2021 के तहत स्थापित किया गया था।

आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय की स्थापना बिहार सरकार के आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय अधिनियम, 2008 के तहत की गई थी जिसका उद्देश्य बिहार में शैक्षिक बुनियादी ढांचे, प्रबंधन और संबद्ध व्यावसायिक शिक्षा का विकास और प्रबंधन करना है । बिड़ला प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना की स्थापना 2006 में हुई थी। 2008 में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान पटना का उद्घाटन पूरे भारत के छात्रों के साथ किया गया था 2008 में, एनएसआईटी ने बिहटा में अपना नया कॉलेज खोला , जो अब एक शिक्षा केंद्र के रूप में उभर रहा है। चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय और चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान की स्थापना 2008 के उत्तरार्ध में की गई थी और अब यह न केवल बिहार के भीतर से बल्कि दूरदराज के राज्यों से भी छात्रों को आकर्षित करता है। नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना 2014 में जापान, कोरिया और चीन जैसे देशों से सक्रिय निवेश के साथ की गई

बिहार में आठ मेडिकल कॉलेज हैं जो सरकार द्वारा वित्त पोषित हैं, अर्थात् पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल , नालंदा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल , वर्धमान आयुर्विज्ञान संस्थान , इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान , दरभंगा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल , अनुग्रह नारायण मगध मेडिकल कॉलेज और अस्पताल गया , श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल , जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज, भागलपुर , राजकीय मेडिकल कॉलेज, बेतिया और पांच निजी मेडिकल कॉलेज २०१४ में बिहार सरकार ने पटना के पास बिहटा में विकास प्रबंधन संस्थान की स्थापना की । फरवरी २०१९ में, उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने घोषणा की कि बिहार सरकार ने छपरा, पूर्णिया, समस्तीपुर, बेंगूसराय, सीतामढ़ी, वैशाली, झंझारपुर, सीवान, बक्सर, भोजपुर, जमुई में ११ नए मेडिकल कॉलेज स्थापित करने की योजना बनाई है इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान परिसर में एक कैंसर संस्थान के निर्माण और पटना मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल को विश्व स्तरीय स्वास्थ्य केंद्र में बदलने की भी योजना है। 

बिहार सरकार कई राज्य स्तरीय सामान्य प्रयोजन विश्वविद्यालय चलाती है जैसे भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय , बीआर अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय , जय प्रकाश विश्वविद्यालय , ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय , मगध विश्वविद्यालय , पटना विश्वविद्यालय , तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय , वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय , पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय , पूर्णिया विश्वविद्यालय और मुंगेर विश्वविद्यालय । नालंदा खुला विश्वविद्यालय की स्थापना मार्च 1987 में बिहार सरकार द्वारा दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से विशेष रूप से शिक्षा प्रदान करने के लिए की गई थी और बाद में 1995 में, नालंदा खुला विश्वविद्यालय अधिनियम बिहार विधानमंडल द्वारा पारित किया गया और उसके बाद पारित अधिनियम के अधिकार और अधिकार क्षेत्र में आ गया। बिहार में कृषि और पशुपालन में प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए बिहार कृषि विश्वविद्यालय और बिहार पशु विज्ञान विश्वविद्यालय जैसे विशेष विश्वविद्यालय हैं।  बिहार में दो भाषा-विशिष्ट विश्वविद्यालय हैं अरबी और फारसी विश्वविद्यालय और दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय ।

सुपर 30 जैसे संस्थानों के साथ , पटना इंजीनियरिंग और सिविल सेवा कोचिंग के लिए एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा है । प्रमुख निजी आईआईटी-जेईई कोचिंग संस्थानों ने बिहार में अपनी शाखाएँ खोली हैं और इससे उन छात्रों की संख्या में कमी आई है जो इंजीनियरिंग/मेडिकल कोचिंग के लिए , उदाहरण के लिए, कोटा और दिल्ली जाते हैं ।

रोजगार

बिहार ई-गवर्नेंस सर्विसेज एंड टेक्नोलॉजीज (बीईएसटी) और बिहार सरकार ने बिहार नॉलेज सेंटर नामक उत्कृष्टता केंद्र स्थापित करने के लिए एक अनूठा कार्यक्रम शुरू किया है, जो छात्रों को किफायती लागत पर नवीनतम कौशल और अनुकूलित अल्पकालिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों से लैस करने के लिए एक फिनिशिंग स्कूल है। केंद्र का उद्देश्य राज्य के युवाओं को अपने तकनीकी, पेशेवर और सॉफ्ट कौशल में सुधार करने के लिए आकर्षित करना है, ताकि औद्योगिक नौकरी बाजार की वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।  इंजीनियरिंग स्नातकों की राष्ट्रीय रोजगार रिपोर्ट, 2014,  बिहार के स्नातकों को देश के शीर्ष 25 प्रतिशत में रखती है, और गुणवत्ता और रोजगार के मामले में बिहार को इंजीनियरिंग स्नातकों का उत्पादन करने वाले तीन शीर्ष राज्यों में से एक के रूप में दर्जा देती है। 

शैक्षिक चुनौतियाँ

भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों में से एक बिहार में, महिलाओं की शिक्षा प्रमुख प्रगति और असफलताओं के बीच एक जटिल संबंध का प्रतिनिधित्व करती है। राज्य की ऐतिहासिक और वर्तमान सामाजिक-आर्थिक असमानता इसकी संघर्षशील शिक्षा प्रणाली को बहुत प्रभावित करती है जो भारत के अन्य सभी राज्यों से पीछे है। राज्य काफी हद तक कृषि पर निर्भर है, जो इसके निवासियों के लिए सामाजिक-आर्थिक अवसरों को कम करता है। हाल ही में, सरकार और जमीनी स्तर की पहल के परिणामस्वरूप महिलाओं की शिक्षा में सुधार हुआ है। हालाँकि, बिहार में शैक्षिक परिदृश्य अभी भी बुनियादी ढाँचे की असमानताओं, सामाजिक-आर्थिक सीमाओं, सांस्कृतिक अपेक्षाओं और सामाजिक मानकों के प्रभाव सहित प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रहा है।

क्षेत्र के शोषण का इतिहास शैक्षिक प्रणाली की वर्तमान दयनीय स्थिति में भारी योगदान देता है। ब्रिटिश राज के दौरान, औपनिवेशिक सरकार और स्थानीय ज़मींदार संयुक्त रूप से करों को इकट्ठा करने पर ध्यान केंद्रित करते थे, जिसने आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए शैक्षिक अवसरों की महत्वपूर्ण आवश्यकता को नजरअंदाज कर दिया। ब्रिटेन से स्वतंत्रता के बाद, शैक्षिक उपेक्षा की प्रवृत्ति जारी रही, हालाँकि निर्वाचित सरकारी अधिकारियों के पास प्रभारी थे। व्यापक विकास के आगे राजस्व संग्रह को अत्यधिक महत्व देने के विकल्प ने सामाजिक-आर्थिक अवसरों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच में बाधा उत्पन्न की। बिहार पूरे भारत में दूसरा सबसे गरीब राज्य है। बिहार में, लगभग ८०% आबादी कृषि उत्पादन पर निर्भर है, और ४०% से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे मानी जाती है। राज्य में शैक्षिक प्राप्ति का स्तर खराब है और निरक्षरता की दर अधिक है शिक्षा के अभाव के कारण बड़ी संख्या में लोग उच्च वेतन वाली नौकरियों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते, जिससे गरीबी का चक्र और अधिक बढ़ जाता है।

क्षेत्र की ऐतिहासिक उपेक्षा, खराब बुनियादी ढांचे के विकास और आर्थिक बाधाओं के कारण जो उच्च ड्रॉपआउट दरों में योगदान करते हैं, बिहार में ऐतिहासिक रूप से साक्षरता दर कम है। 2001 में निरक्षरता की 47% दर से 2011 में 63% तक की वृद्धि देखने के बावजूद, राज्य में अभी भी भारत में सबसे कम साक्षरता दर है।  कम साक्षरता दर शिक्षा प्रणाली और सामाजिक आर्थिक मुद्दों में सुधार की आवश्यकता पर जोर देती है। इस क्षेत्र में माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर भी 83% ड्रॉपआउट दर है।  प्राथमिक विद्यालय में बुनियादी पाठ्यक्रम से परे माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चे की दुर्लभता का मतलब है कि बच्चों को स्कूल में नामांकित रखना एक महत्वपूर्ण बाधा है।

बिहार की स्कूल प्रणाली में बुनियादी ढांचे, पर्याप्त शिक्षकों और संसाधनों की कमी है। सबसे पहले, योग्य शिक्षकों की कमी है। माध्यमिक विद्यालय में पढ़ाने वाले केवल 55% शिक्षक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 40% शिक्षकों के पास अपनी नौकरी के लिए पर्याप्त योग्यता है।  इसके अलावा, अधिकांश स्कूलों में संसाधनों और बुनियादी ढांचे की कमी है। 2016 में, बिहार के लगभग 0.8% स्कूलों में कंप्यूटर की पहुंच थी।  2016 में, 30.7% स्कूलों में छात्रों के उपयोग के लिए पुस्तकालय की किताबें उपलब्ध नहीं थीं।  इसके अतिरिक्त, लगभग 29.4% स्कूलों में शौचालय उपलब्ध और उपयोग करने योग्य नहीं था।  बिहार के स्कूलों में बुनियादी ढांचे, योग्य शिक्षकों और वित्त पोषण की कमी है।

बिहार में महिलाओं की शिक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। भारत में लैंगिक असमानता जैसे मुद्दे एक अतिरिक्त बाधा जोड़ते हैं जो युवा लड़कियों को स्कूली शिक्षा से रोकते हैं। शिक्षा तक महिलाओं की पहुँच अक्सर उन पर सामाजिक और आर्थिक दबावों से बाधित होती है। लगभग आधे बिहारी साक्षर हैं; हालाँकि, केवल एक तिहाई महिलाएँ ही साक्षर हैं।  लिंग भूमिकाओं की व्यापकता के कारण, एक छोटी लड़की की शादी होने की संभावना होती है और इस तरह उसे शिक्षित करने का अक्सर कोई लाभ नहीं होता है। बाल विवाह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो बिहार में बेहद प्रचलित है। एक युवा महिला की शिक्षा एक युवा पुरुष की शिक्षा जितनी महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि उससे उम्मीद की जाती है कि वह काम करके अपने परिवार का भरण-पोषण करेगा। बिहार में 7-18 वर्ष की 24.5% से अधिक युवा लड़कियाँ माध्यमिक विद्यालय छोड़ देंगी । 

बिहार की असफल शिक्षा प्रणाली के कारण ग्रामीण और गरीब इलाके भी अधिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। शहरी इलाकों में साक्षरता दर ग्रामीण इलाकों से ज्यादा है। बिहार के मध्य शहरी इलाकों में साक्षरता दर ज्यादा है और राज्य के उत्तर और पूर्वी क्षेत्रों में सबसे कम है। शहरी साक्षरता दर 58.42% है, जबकि ग्रामीण साक्षरता दर 29.57% है। ग्रामीण इलाकों के जिलों में गरीब मुस्लिम समुदायों की बड़ी आबादी रहती है। ग्रामीण और शहरी जिलों के बीच धन की असमानताओं के कारण ग्रामीण समुदाय शिक्षा संकट से असमान रूप से प्रभावित हैं। राज्य के ग्रामीण इलाकों में माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षित करने के महत्व को समझते हैं, हालांकि सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक कारकों के कारण अक्सर शादी करने या काम करने को प्राथमिकता दी जाती है। बाल श्रम एक महत्वपूर्ण बाधा है जो बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने से रोकता है। कई बच्चों के पास शिक्षा के अवसर या विकल्प उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि उन्हें अपने परिवारों को आर्थिक रूप से सहायता करने के लिए काम करना पड़ता है। बिहार में शिक्षा प्रणाली लैंगिक असमानताओं, सीमित वित्त पोषण, गरीबी, संसाधनों की कमी और सामाजिक-सांस्कृतिक अपेक्षाओं सहित कई चुनौतियों का सामना करती है। गरीबी का चक्र तब तक जारी रहेगा जब तक कि सरकार अपने नागरिकों को शिक्षित करने और अपनी शिक्षा प्रणाली को संसाधन प्रदान करने के तरीके को बदलने के लिए कार्रवाई करने का आह्वान नहीं करती।

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अध्यय :- 4. शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के उद्देश्य, महत्व एवं प्रावधान 

शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के उद्देश्य

प्राथमिक शिक्षा ऐसा आधार है जिसपर देश तथा प्रत्येक नागरिक का विकास निर्भर करता है। हाल के वर्षों में भारत ने प्राथमिक शिक्षा में नामांकन, छात्रों की संख्या बरकरार रखने, उनकी नियमित उपस्थिति दर और साक्षरता के प्रसार के संदर्भ में काफी प्रगति की है। जहाँ भारत की उन्नत शिक्षा पद्धति को भारत देश के आर्थिक विकास का मुख्य योगदानकर्ता तत्व माना जाता है, वहीं भारत में आधारभूत शिक्षा की गुणवत्ता फिलहाल एक चिंता का विषय है। भारत में 14 साल की उम्र तक के सभी बच्चों को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना संवैधानिक प्रतिबद्धता है। देश के संसद ने वर्ष 2009 में ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम' पारित किया था जिसके द्वारा 6 से 14 साल के सभी बच्चों के लिए शिक्षा एक मौलिक अधिकार हो गई थी। हालांकि देश में अभी भी आधारभूत शिक्षा को सार्वभौम नहीं बनाया जा सका है। इसका अर्थ है बच्चों का स्कूलों में सौ फीसदी नामांकन और स्कूलिंग सुविधाओं से लैस हर घर में उनकी संख्या को बरकरार रखना। इसी कमी को पूरा करने हेतु सरकार ने वर्ष 2001 में सर्व शिक्षा अभियान योजना की शुरुआत की थी, जो अपनी तरह की दुनिया में सबसे बड़ी योजना थी। सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में सूचना व संचार प्रौद्योगिकी शिक्षा क्षेत्र में वंचित और संपन्न समुदायों, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, के बीच की दूरी पाटने का कार्य कर रहा है। भारत विकास प्रवेशद्वार ने प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में भारत में मौलिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण हेतु प्रचुर सामग्रियों को उपलब्ध कराकर छात्रों तथा शिक्षकों की क्षमता बढ़ाने की पहल की है। बाल अधिकार बाल अधिकार आज के समय की सबसे बड़ी और उभरती हुई जरुरत है, जिसके बारे में लोगों में जानकारी का अभाव है। इस भाग में ऐसे कई बाल अधिकारों पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रण का उद्देश्य बच्चों के बाल अधिकारों का हनन होने से रोकना और उनके अधिकार सुरक्षित करना है। नीतियां और योजनाएं 6 से 14 साल की उम्र के बीच के हर बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है। इस 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम के अनुच्छेद 21 ए जोड़ा गया और इसे कार्यान्वित करने के लिए सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों की जानकारी इस भाग में दी गई है। बाल जगत मल्टीमीडिया सामग्री के विभिन्न भाग विज्ञान खंड आदि रचनात्मक सोच और सीखने की प्रक्रिया में बच्चों में सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करते हैं। इसी तरह के अन्य उदाहरणों को इस भाग में प्रस्तुत किया गया है। शिक्षक मंच शिक्षण और अधिगम प्रक्रिया की अनेक महत्वपूर्ण बातें शिक्षार्थी जीवन में इस प्रक्रिया की उपयोगिता सिद्ध करती हैं। विभिन्न कौशल के साथ शिक्षक की विद्यार्थी के व्यवहार और सीखने के अनुभव के साथ समग्र विकास में किस तरह भूमिका होती है- इसकी संक्षिप्त जानकारी यह भाग देता है। ऑनलाइन मूल्यांकन यह भाग ऑनलाइन मूल्यांकन के अंतर्गत वेब संसाधनों और स्रोत की सहायता से गणित,विज्ञान,भूगोग की स्वमूल्यांकन प्रक्रिया को दर्शाते हुए राज्य,उनकी राजधानियों और भारत के नदियों के नाम और उनकी विशेषताओं के बारे में जानने का अवसर देता है। शिक्षा की ओर प्रवृत करने की पहल इस भाग में बहुप्रतिभा सिद्धांत की व्याख्या करते हुये बुद्धि के विभिन्न प्रकार (शाब्दिक,तार्किक आदि) के बारे में गार्नर के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत को प्रस्तुत किया गया है। यह भाग बताता है कि प्रत्येक व्यक्ति की सीखने की शैली,शिक्षा में इसके उपयोग के साथ स्कूल में बहु-प्रतिभा सिद्धान्त अपनाने के अनेक लाभ हैं। कैरियर मार्गदर्शन कैरियर में मार्गदर्शन से भविष्य को बेहतर तरीके से आकार देने में मदद मिलती है। यह भाग पाठकों को उपलब्ध विभिन्न अध्ययन और 10 वीं कक्षा, स्नातक के बाद मिलने वाले रोजगार के अवसरों की जानकारी के साथ इससे जुड़ीं अन्य महत्वपूर्ण जानकारियों को जानने का अवसर देता है। कंप्यूटर शिक्षा इस भाग के विभिन्न विषय आपकी सूचना और प्रौद्योगिकी की जानकारी में इज़ाफा करते हुए उसके माध्यम से क्षमता निर्माण में उसके द्वारा होने वाले महत्वपूर्ण योगदान की जानकारी देते हैं। संसाधन लिंक यह भाग शिक्षा क्षेत्र में उपयोगी सरकारी,वैश्विक संसाधन,प्रशिक्षण एवं आदान-प्रदान योग्य संसाधन,बाल अधिकार व प्रचार संसाधन आदि की जानकारी देते हुए और शिक्षा समाचार स्रोत की उपयोगिता बताते हुए इस क्षेत्र में कार्यरत अंतर्राष्ट्रीय अभिकरणों को भी जानने का अवसर देता है। चर्चा मंच शिक्षा का चर्चा मंच शिक्षा से जुड़े विभिन्न विषयों पर आपको अपने विचारों को प्रस्तुत करने के साथ अन्यों के साथ अपने विचारों और सूचनाओं को आदान-प्रदान करने का अवसर भी देता है।

शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के  महत्व 

भारतीय संसद द्वारा 4 अगस्त, 2009 को अधिनियमित शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) 2009 यह सुनिश्चित करता है कि बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा तक पहुँच प्राप्त हो। यह कानून, जिसे बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के रूप में भी जाना जाता है, 6 से 18 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा की गारंटी देता है। इस कानून के लागू होने के साथ ही भारत दुनिया भर के 134 अन्य देशों में शामिल हो गया है जहाँ शिक्षा एक मौलिक अधिकार है।
2009 का आरटीई अधिनियम भारत में हर बच्चे के लिए समान शैक्षिक अवसर सुनिश्चित करने का प्रयास करता है, चाहे उनकी पृष्ठभूमि या वित्तीय स्थिति कुछ भी हो। इसके लिए निजी स्कूलों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों के लिए 25% सीटें आरक्षित करने की आवश्यकता होती है, जिससे समावेशिता को बढ़ावा मिलता है। नामांकन से परे, अधिनियम बुनियादी ढांचे, शिक्षक योग्यता और पाठ्यक्रम के लिए न्यूनतम मानक स्थापित करके शैक्षिक गुणवत्ता को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करता है। निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करके, आरटीई अधिनियम का उद्देश्य समुदायों का उत्थान करना और प्रत्येक बच्चे की क्षमता का पोषण करके राष्ट्र के भविष्य के लिए एक मजबूत नींव रखना है।

आरटीई अधिनियम 2009 क्या है?

शिक्षा एक मौलिक मानव अधिकार है, जो जाति, लिंग, राष्ट्रीयता, जातीयता या राजनीतिक झुकाव की परवाह किए बिना सभी के लिए निःशुल्क प्रारंभिक शिक्षा सुनिश्चित करता है। आरटीई अधिनियम 2009 भारतीय संसद द्वारा 4 अगस्त 2009 को पारित किया गया था। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21(ए) 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करता है। 1 अप्रैल 2010 से भारत उन 135 देशों में शामिल हो गया है, जिन्होंने शिक्षा को प्रत्येक बच्चे के मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है। आरटीई अधिनियम 2009 प्राथमिक विद्यालयों के लिए मानक निर्धारित करता है, गैर-मान्यता प्राप्त संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाता है, तथा प्रवेश शुल्क और बाल साक्षात्कार का विरोध करता है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अंतर्गत नियमित सर्वेक्षणों से शिक्षा तक पहुंच से वंचित बच्चों की पहचान की जाती है। "निःशुल्क और अनिवार्य" आरटीई अधिनियम के शीर्षक का अभिन्न अंग हैं। आरटीई अधिनियम 2009 गैर-सरकारी वित्तपोषित स्कूलों को छोड़कर, प्राथमिक शिक्षा में बाधा डालने वाली फीस पर प्रतिबंध लगाता है।

सरकार और स्थानीय प्राधिकारियों को 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा तक पहुंच, उपस्थिति और पूर्णता सुनिश्चित करने का दायित्व सौंपा गया है।

इसमें छात्र-शिक्षक अनुपात के लिए विशिष्ट मानक निर्धारित किए गए हैं, जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। इसमें लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग शौचालय की सुविधा, पर्याप्त कक्षा-कक्ष की स्थिति और पेयजल की उपलब्धता अनिवार्य की गई है। शैक्षिक गुणवत्ता और उपलब्धता के अंतर को पाटने के लिए शिक्षकों के वितरण में शहरी-ग्रामीण असमानता को दूर करना महत्वपूर्ण है।
बाल उत्पीड़न और भेदभाव के प्रति शून्य सहिष्णुता जाति, धर्म या लिंग पूर्वाग्रह के बिना निष्पक्ष प्रवेश सुनिश्चित करती है।
यह अधिनियम कक्षा 8 तक विद्यार्थियों को अनुत्तीर्ण करने पर रोक लगाता है तथा कक्षा-उपयुक्त शिक्षण परिणामों के लिए सतत व्यापक मूल्यांकन (सीसीई) की शुरुआत करता है।
इसमें प्रत्येक स्कूल को सहभागी शासन और स्कूल विकास योजनाओं के लिए एक स्कूल प्रबंधन समिति (एसएमसी) स्थापित करने की आवश्यकता है।

यह अधिनियम शिकायत निवारण तंत्र के साथ लागू करने योग्य है, जो गैर-अनुपालन के लिए कार्रवाई को सक्षम बनाता है। आरटीई के तहत निजी स्कूलों को आर्थिक रूप से वंचित और सामाजिक रूप से पिछड़े बच्चों के लिए 25% सीटें आरक्षित करना अनिवार्य है, जिससे सामाजिक समावेश को बढ़ावा मिलेगा। प्रारंभ में विवादास्पद, यह प्रावधान (धारा 12(1)(सी)) समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने में इसके महत्व को उचित ठहराता है। सरकार इस प्रावधान के तहत आरक्षित सीटों के लिए स्कूलों को प्रतिपूर्ति करती है। आरटीई अधिनियम के कार्यान्वयन से 2009 से 2016 तक उच्च प्राथमिक नामांकन (कक्षा 6-8) में 19.4% की वृद्धि हुई।
ग्रामीण क्षेत्रों में, 2016 तक 6-14 वर्ष आयु वर्ग के केवल 3.3% बच्चे ही स्कूल से बाहर थे।

शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के संवैधानिक प्रावधान

शिक्षा का अधिकार
6-14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को पड़ोस के स्कूलों में निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है।
प्रवेश एवं आयु-उपयुक्त कक्षाएं
6 वर्ष से अधिक आयु के जो बच्चे नामांकित नहीं हैं या शिक्षा पूरी करने में असमर्थ हैं, उन्हें आयु-उपयुक्त कक्षा में दाखिला दिया जाना चाहिए।
मुफ्त शिक्षा
प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक निःशुल्क है, भले ही बच्चा 14 वर्ष से अधिक का हो।
कोई प्रतिधारण या निष्कासन नहीं
किसी भी बच्चे को प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने तक रोका नहीं जा सकता, निष्कासित नहीं किया जा सकता, या बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
पाठ्यक्रम और मान्यता
उपयुक्त सरकार पाठ्यक्रम विकास के लिए एक अकादमिक प्राधिकरण निर्दिष्ट करती है।स्कूलों को छात्र-शिक्षक अनुपात मानदंडों का पालन करना चाहिए।स्कूलों को निर्धारित मानदंडों के आधार पर मान्यता की आवश्यकता होती है।
शिक्षक योग्यता
शिक्षकों को सरकार द्वारा आयोजित शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) उत्तीर्ण करनी होगी। न्यूनतम योग्यता राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) द्वारा निर्धारित की जाती है।
स्कूल की जिम्मेदारियाँ
सरकारी स्कूल मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करते हैं।सहायता प्राप्त स्कूल वित्तपोषण के अनुपात में शिक्षा प्रदान करते हैं (न्यूनतम 25%)।शिक्षक निजी ट्यूशन और गैर-शिक्षण कर्तव्यों से बचते हैं।स्कूल प्रबंधन समितियाँ (एसएमसी) अनुदान की निगरानी करती हैं और विकास योजनाएँ तैयार करती हैं।
सरकारी जिम्मेदारियाँ
केंद्र सरकार:राष्ट्रीय सलाहकार परिषद कार्यान्वयन पर सलाह देती है।राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा विकसित करती है।शिक्षक प्रशिक्षण मानकों को लागू करती है।राज्य सरकार:निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रदान करती है।प्रवेश, उपस्थिति और पूर्णता सुनिश्चित करती है।पड़ोस के स्कूलों की उपलब्धता सुनिश्चित करती है।

आरटीई अधिनियम 2009 का कार्यान्वयन

साझा जिम्मेदारी : भारतीय संविधान में शिक्षा एक साझा मामला है, जिससे केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को शिक्षा से संबंधित कानून बनाने की अनुमति मिलती है।

भूमिकाएं और कार्यान्वयन : कानून शैक्षिक नीतियों के कार्यान्वयन के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों को विशिष्ट भूमिकाएं प्रदान करता है।

वित्तीय चुनौतियाँ : सार्वभौमिक शिक्षा के लिए सभी आवश्यक स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए राज्यों के पास अक्सर वित्तीय संसाधनों का अभाव होता है।

केन्द्र सरकार की सहायता : प्राथमिक राजस्व संग्रहकर्ता के रूप में, केन्द्र सरकार को राज्यों को वित्तीय सहायता प्रदान करने की आवश्यकता हो सकती है।

वित्त पोषण अनुमान : एक समिति ने अनुमान लगाया कि शिक्षा से संबंधित कानूनों को लागू करने के लिए पांच वर्षों में 1.71 ट्रिलियन रुपए (38.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर) की आवश्यकता होगी।

संशोधित वित्तपोषण : अप्रैल 2010 में, केंद्र सरकार ने केंद्र और राज्यों के बीच 65-35 के अनुपात (पूर्वोत्तर राज्यों के लिए 90-10) के साथ शिक्षा को वित्तपोषित करने पर सहमति व्यक्त की। हालांकि, 2010 के मध्य तक, राशि को संशोधित कर 2.31 ट्रिलियन रुपये कर दिया गया, जिसमें केंद्र संभवतः 68% या 70% का योगदान देगा।

शिक्षा के अधिकार का विस्तार : 2011 में एक महत्वपूर्ण निर्णय द्वारा शिक्षा के अधिकार को कक्षा 10 (16 वर्ष की आयु) तक तथा प्रीस्कूल आयु सीमा तक बढ़ा दिया गया, तथा CABE समिति इन परिवर्तनों के प्रभावों का आकलन कर रही है।

आरटीई अधिनियम 2009 की उपलब्धियां

आरटीई अधिनियम की सबसे बड़ी सफलता यह है कि 2010 में इसके कार्यान्वयन के बाद भारत ने लगभग 100% नामांकन दर हासिल कर ली।

इस सकारात्मक प्रभाव से भारत को अपना शैक्षिक बुनियादी ढांचा विकसित करने में मदद मिली।

एसर सेंटर की वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (एएसईआर) के अनुसार, उपयोग योग्य बालिका शौचालय वाले स्कूलों का प्रतिशत दोगुना होकर 2018 में 66.4% तक पहुंच गया।

इसी वर्ष, चारदीवारी वाले स्कूलों की संख्या में 13.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

अब 91% स्कूलों में खाना पकाने की व्यवस्था उपलब्ध है, जो पहले 82.1% थी।

इसके अतिरिक्त, गैर-पाठ्यपुस्तक पुस्तकें प्राप्त करने वाले स्कूलों का प्रतिशत 62.6% से बढ़कर 74.2% हो गया।

आरटीई अधिनियम 2009 की सीमाएं

आयु समूह समावेशन : शिक्षा के अधिकार के लिए वर्तमान आयु सीमा 6-14 वर्ष है। इसे बढ़ाकर 0-18 वर्ष करने से यह अधिक समावेशी और व्यापक हो जाएगा।

सीखने की गुणवत्ता पर ध्यान : आरटीई अधिनियम में शिक्षा की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। ASER की कई रिपोर्टें इस इनपुट-उन्मुख दृष्टिकोण को उजागर करती हैं।

25% कोटा लागू न करने वाले राज्य : गोवा, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम और तेलंगाना ने आरटीई अधिनियम के तहत वंचित बच्चों के लिए 25% आरक्षित सीटों के संबंध में अधिसूचना जारी नहीं की है।

सांख्यिकी बनाम सीखने की गुणवत्ता : सीखने के परिणामों की वास्तविक गुणवत्ता के बजाय आरटीई के आंकड़ों पर असंगत जोर दिया जाता है।

शिक्षकों की कमी का प्रभाव : शिक्षकों की कमी से शिक्षा के अधिकार द्वारा निर्धारित छात्र-शिक्षक अनुपात प्रभावित होता है, जिससे अंततः शिक्षण की गुणवत्ता प्रभावित होती है।

शिक्षा का अधिकार (आरटीई अधिनियम 2009) की आलोचना

आर्थिक रूप से वंचित समूहों (ईडीजी) और कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के खिलाफ भेदभाव : शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को आर्थिक रूप से वंचित समूहों और कमजोर वर्गों की शैक्षिक आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से संबोधित न करने के कारण आलोचना का सामना करना पड़ा है।
योग्य छात्रों पर नज़र रखने में चुनौतियाँ : स्थानीय सरकारें आरटीई अधिनियम 2009 धारा 12(1)© के प्रावधानों के तहत अर्हता प्राप्त करने वाले छात्रों पर नज़र रखने के लिए संघर्ष करती हैं। नतीजतन, उन्हें प्रवेश के लिए योग्य छात्रों की पहचान करना मुश्किल लगता है।
प्रथम पीढ़ी के छात्र और आवेदन प्रक्रिया : प्रथम पीढ़ी के छात्रों को अक्सर आवेदन पत्र भरने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप वे आरटीई अधिनियम 2009 के लाभों से वंचित रह जाते हैं।
निजी स्कूल प्रवेश से संबंधित मुद्दे : निजी स्कूल कभी-कभी प्रवेश देने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि सरकार द्वारा उन्हें तुरंत धनराशि की प्रतिपूर्ति नहीं की जाती।
अभिभावकों पर अपने बच्चों का प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए धन दान करने या आवेदन शुल्क का भुगतान करने का दबाव डाला गया है।
प्रवेश में देरी और ड्रॉपआउट : प्रवेश प्रक्रिया में देरी के कारण छात्र पढ़ाई छोड़ सकते हैं या उन्हें समय पर प्रवेश नहीं मिल सकता है।

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अध्यय :- 5. शोध प्रविधि व ग्रामीण क्षेत्र के प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण 


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अध्यय :- 6. सारांश, निष्कर्ष एवं महत्वपूर्ण सुझाव 


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सन्दर्भ सूची  

1. https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE

2. https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8

3. https://www.cheggindia.com/general-knowledge/rte-act-2009/

4. https://en-m-wikipedia-org.translate.goog/wiki/Education_in_Bihar?_x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=wa

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                                    धन्यवाद 

संपादन व संकलन :

आराध्या सिंह 

एम. ए. गाँधी विचार 

तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय 






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